श्रीमती गजानंद शास्त्रिणी–४
शास्त्री जी ऊपर एकांत में दवा कूट रहे थे। आवाज पहचानकर बुलाया। मित्र ने पहुंचने के साथ देखा - खिजाब ताजा है। प्रसन्न होकर बोला, 'मेरी मानिए, तो वह ब्याह कराऊं, जैसा कभी किया न हो, और बहू अप्सरा, संस्कृत पढ़ी, रुपया भी दिलाऊं।'
शास्त्री जी पुलकित हो उठे। कहा, 'आप हमें दूसरा समझते हैं? - इतनी मित्रता रोज की उठक-बैठक, आप मित्र ही नहीं - हमारे सर्वस्व हैं। आपकी बात न मानेंगे तो क्या रास्ता-चलते की मानेंगे? - आप भी !' 'आपने अभी स्नान नहीं किया शायद? नहाकर चंदन लगाकर अच्छे कपड़े पहनकर नीचे आइए। विवाह करने वाले जमींदार साहब हैं।
वहीं परिचय कराऊंगा। लेकिन अपनी तरफ से कुछ कहिएगा मत। नहीं तो, बड़ा आदमी है, भड़क जाएगा। घर की शेखी में मत भूलिएगा। आप जैसे उसके नौकर हैं। हां, जन्म-पत्र अपना हरगिज न दीजिएगा। उम्र का पता चला तो न करेगा। मैं सब ठीक कर दूंगा। चुपचाप बैठे रहिएगा। नौकर कहां है?' 'बाजार गया है।' 'आने पर मिठाई मंगवाइएगा। हालांकि खाएगा नहीं। मिठाई से इंकार करने पर नमस्कार करके सीधे ऊपर का रास्ता नापिएगा। मैं भी यह कह दूंगा, शास्ती तजी ने आधे घंटे का समय दिया है।'
शास्त्री गजानन्द जी गदगद हो गए। ऐसा सच्चा आदमी यह पहला मिला है, उनका दिल कहने लगा। मित्र नीचे उतरा और मित्र से गंभीर होकर बोला, 'पूजा में हैं, मैं तो पहले ही समझ गया था।
दस मिनट के बाद आंख खोली, जब मैंने घंटी टिनटिनाई। जब से स्त्री का देहांत हुआ है, पूजा में ही तो रहते हैं। सिर हिलाकर कहा - चलो। देखिए, बाबा विश्वनाथ ही हैं। हे प्रभो! शरणागत-शरण! तुम्हीं हो - बाबा विश्वनाथ!' कहते हुए मित्र ने पलकें मूंद लीं। इसी समय पैरों की आहट मालूम थी। देखा, नौकर आ रहा था। डांटकर कहा, 'पंखा झल। शास्त्री जी अभी आते हैं।'
नौकर पंखा झलने लगा। वैद्य का बैठका था ही। पं. रामखेलावन जी प्रभाव में आ गए। आधे घंटे बाद जीने में खड़ाऊं की खटक सुन पड़ी। मित्र उठकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, उंगली के इशारे पं. रामखेलावन जी को खड़े हो जाने के लिए कहकर। मित्र की देखा-देखी पंडित जी ने भी भक्तिपूर्वक हाथ जोड़ लिए। नौकर अचंभे से देख रहा था। ऐसा पहले नहीं देखा था।
शास्त्री जी के आने पर मित्र ने घुटने तक झुककर प्रणाम किया। पं. रामखेलावन जी ने भी मित्र का अनुसरण किया। 'बैठिए, गदाधर जी' कोमल सभ्य कंठ से कहकर गजानंद जी अपनी कुर्सी पर बैठ गए। वैद्यजी की बढिया गद्दीदार कुर्सी बीच में थी। पं. रामखेलावन जी आश्चर्य और हर्ष से देख रहे थे। आश्चर्य इसलिए कि शास्त्री जी बड़े आदती तो हैं ही, उम्र भी अधिक नहीं, 25 से 30 कहने की हिम्मत नहीं पड़ती। शास्त्री जी ने नौकर को पान और मिठाई ले आने के लिए भेजा और स्वाभाविक बनावटी विनम्रता के साथ मित्रवर गदाधर ने आगंतुक अपरिचित महाशय का परिचय पूछने लगे। पं. गदाधर जी बड़े दात्त कंठ से पं. रामखेलावन जी की प्रशंसा कर चले, पर किस अभिप्राय से वे गए थे, यह न कहा। कहा, 'महाराज! आप एक अत्यंत आवश्यक गृहधर्म से मुक्त होना चाहते हैं। पलकें मूंदते हुए, भावावेश मे, शास्त्री जी ने कहा, 'काशी तो मुक्ति के लिए प्रसिद्ध है।' 'हां, महाराज!' मित्र ने और आविष्ट होते हुए कहा, 'वह छूट तो सबसे बड़ी मुक्ति है, पर यह साधारण मुक्ति ही है, जैसे बाबा विश्वनाथ के परमसिद्ध भक्त स्वीकारमात्र से इस भव-बंधन से मुक्ति दे सकते हैं।' कहकर हाथ जोड़ दिए। पं. रामखेलावन जी ने भी साथ दिया।